भगवत गीता के अध्याय 13 में कितने श्लोक हैं?

भगवत गीता के अध्याय 13 में कितने श्लोक हैं?

इसे सुनेंरोकेंइसके साथ ही वह भक्ति योग का वर्णन अर्जुन को सुनाते हैं। तेरहवां अध्याय : क्षेत्र क्षत्रज्ञ विभाग योग गीता तेरहवां अध्याय है इसमें 35 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के बारे में तथा सत्व, रज और तम गुणों द्वारा अच्छी योनि में जन्म लेने का उपाय बताते हैं।

गीता के अनुसार क्षेत्र क्या है?

इसे सुनेंरोकेंक्षेत्र अर्थात हमारे शरीर(देह ) का स्वरूप 5 महाभूतों से बना है- अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी, जिसकी मूल प्रकृति है अहंकार, बुद्धि, और हमारी इंद्रिया।

गीता के अध्याय संख्या 13 क्षेत्र क्षेत्रज्ञविभागयोग का सार क्या है?

इसे सुनेंरोकेंभावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥ …

गीता के अनुसार संन्यास क्या है?

इसे सुनेंरोकेंकुछ पंडित कर्मों के फल के त्याग को त्याग अर्थात सन्यास कहते हैं। 3. कुछ विद्वान् ऐसे हैं जिन्हें सभी कर्मों में दोष की आशंका रहती है इस कारण से वे सभी कर्मों के त्याग की बात करते हैं। इन के अनुसार कोई कर्म दोषरहित नहीं हो सकता।

गीता के अध्याय संख्या 15 पुरुषोत्तम योग का सार क्या है?

इसे सुनेंरोकें15. पंद्रहवां अध्याय- पुरुषोत्तमयोग नाम से है। इसमें संसार को उल्टे वृक्ष की तरह बताकर भगवत्प्राप्ति के उपाय बताए गए हैं। इसमें जीवात्मा के विषय का विषद विवेचन और प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन किया गया है और इसमें क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम के विषय के भी विषद वर्णन है।

गीता का मुख्य सार क्या है?

इसे सुनेंरोकेंगीता सार में श्री कृष्ण ने कहा है कि हर इंसान के द्धारा जन्म-मरण के चक्र को जान लेना बेहद आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य के जीवन का मात्र एक ही सत्य है और वो है मृत्यु। क्योंकि जिस इंसान ने इस दुनिया में जन्म लिया है। उसे एक दिन इस संसार को छोड़ कर जाना ही है और यही इस दुनिया का अटल सत्य है।

संन्यासी का अर्थ क्या होता है?

इसे सुनेंरोकेंसन्यास का अर्थ सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर निष्काम भाव से प्रभु का निरन्तर स्मरण करते रहना। शास्त्रों में संन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहा गया है। संन्यास का व्रत धारण करने वाला संन्यासी कहलाता है।